जालंधर। बिहार की राजनीति में इन दिनों अजब गजब खेल हो रहा है। बीजेपी इस चुनाव में एक बार फिर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाने का दावा तो कर रही है लेकिन एनडीए के एक और साथी लोक जनशक्ति पार्टी अपने दम पर विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके हैं। चिराग पासवान ने साफ कर दिया है कि वे बीजेपी के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारेंगे लेकिन जेडीयू के खिलाफ हर सीट पर लोजपा ने उम्मीदवार खड़ा करने का ऐलान कर दिया है। राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा जोर शोर से की जा रही है कि चिराग पासवान के इस फैसले से बीजेपी को बहुत बड़ा फायदा मिल सकता है।
चिराग पासवान के इस अप्रत्याशित कदम से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती है। नीतीश कुमार ने जेडीयू को होने वाले संभावित नुकसान को पहले ही भांप लिया है इसलिए बीजेपी के आलाकमान के सामने चिराग पासवान के इस रवैये के खिलाफ अपनी सख्त शिकायत दर्ज कराई है।
चिराग पासवान अगर जेडीयू के कैंडिडेट के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारेंगे तो नीतीश कुमार की ताकत घट सकती है, क्योंकि इससे कई सीटों पर नजदीकी मुकाबले में नीतीश कुमार के उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो बिहार में भारतीय जनता पार्टी बड़े भाई के तौर पर एनडीए में उभर कर सामने आ सकती है। 1995 से ही बीजेपी का ये सपना है कि वह एनडीए के भीतर बिहार में नीतीश कुमार की तुलना में बड़े भाई के तौर पर उभरे। इस बार चिराग पासवान के अलग से चुनाव लड़ने से बीजेपी बिहार में नीतीश कुमार को छोटा भाई बना देगी और खुद को बड़े भाई के तौर पर स्थापित कर देगी। 2019 के लोकसभा चुनाव तक बिहार में नीतीश कुमार खुद को बड़ा भाई बताकर बीजेपी से ज्यादा सीटों की मांग करते रहे हैं, लेकिन इस बार बीजेपी अपने दांव से बड़े भाई का ताज अपने सिर पर रखना चाहती है।
गिरिराज सिंह और संजय पासवान जैसे नेता लगातार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कार्यशैली पर सवाल खड़े करते रहे हैं। बीजेपी के कई नेताओं ने इस बात को लेकर भी सवाल उठाया है कि जनता दल यूनाइटेड की तुलना में उनकी पार्टी का स्ट्राइक रेट हर चुनाव में ज्यादा रहा है। साथ ही लोकसभा सदस्य की संख्या के हिसाब से भी बीजेपी, जेडीयू पर भारी पड़ती है। बीजेपी के भीतर से नीतीश कुमार के खिलाफ उठते सवाल के बावजूद दोनों पार्टी में गठबंधन चलता रहा, लेकिन 2013 में नरेंद्र मोदी को बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के बाद नीतीश कुमार एनडीए से बाहर हो गए थे। 2013 में नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी का नेतृत्व स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
इसके बाद नीतीश कुमार ने लालू यादव की पार्टी आरजेडी से गठबंधन कर लिया और 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का सूपड़ा साफ कर दिया। भारी बहुमत के साथ नीतीश कुमार ने लालू यादव के साथ मिलकर बिहार में सरकार बनाई। बिहार में हुए 2015 के विधानसभा चुनाव से बीजेपी ने बहुत बड़ा सबक मिला था। बीजेपी के आलाकमान ये समझ गए थे कि चाहे कोई नेता कितना ही ज्यादा लोकप्रिय क्यों ना हो लेकिन मतदाता प्रदेश और देश के चुनाव में अलग तरीके से मतदान करते हैं। इसके अलावा बीजेपी के नेताओं को ये सबक भी मिल गया कि जातीय गुणा-गणित पर आधारित बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार एक अहम सहयोगी साबित हो सकते हैं क्योंकि उनमें वोटरों को उच्च जाति और पिछड़ी जाति में ध्रुवीकरण को रोकने की जबरदस्त क्षमता है।
उधर नीतीश कुमार भी लालू प्रसाद यादव के आक्रामक रवैये की वजह से ये समझ गए थे कि आरजेडी के साथ सरकार चलाना बहुत मुश्किल है क्योंकि सरकार चलाने में लालू यादव अपनी बड़ी भागीदारी मांग रहे थे। सरकार से पकड़ कमजोर होता देख नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ एक बार फिर से संबंध जोड़ने का फैसला किया। वहीं बीजेपी भी 2015 के विधानसभा चुनाव के नतीजे से ये समझ चुकी थी कि बिना नीतीश कुमार के उनका काम भी नहीं चलने वाला है।
यही वजह है कि 2017 में नीतीश कुमार और बीजेपी एक बार फिर साथ आ गए थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू ने एक साथ मिलकर आरजेडी-कांग्रेस गठजोड़ को जड़ से उखाड़ दिया। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू बराबर के साझीदार के तौर पर चुनावी मैदान में उतरे थे। बीजेपी ने लोकसभा चुनाव के इसी फार्मूले यानी बराबर की सीट की साझेदारी को 2020 के विधानसभा चुनाव में भी अपनाने का मन बना लिया था। जेडीयू ने शूरुआत में बीजेपी की इस मांग का विरोध किया लेकिन अब ये तय हो चुका है कि नीतीश कुमार कमोबेश इसी फार्मूले को स्वीकार कर चुके हैं। बिहार विधानसभा की 243 सीट में से 122 सीट पर जेडीयू और उनके साथी चुनाव लड़ेंगे तो 121 सीट बीजेपी के खाते में गई है। सीटों के इस आंकड़े से ये साफ हो गया है कि नीतीश कुमार अब नाम के बड़े भाई रह गए हैं। वहीं बीजेपी बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार के साथ बराबर की साझीदार हो गई है। हालांकि नीतीश कुमार इस फार्मूले पर इसलिए मान गए थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी को बीजेपी एडजेस्ट करेगी। अब बदली परिस्थितियों में चिराग पासवान के अलग से चुनाव लड़ने से सबसे ज्यादा नुकसान नीतीश कुमार को ही होने वाला है।
नीतीश कुमार के लिए दिक्कत इसलिए भी ज्यादा हो गई है कि अभी जनता के बीच उनकी लोकप्रियता ढलान पर है। 15 साल तक सत्ता में रहने की वजह से नीतीश कुमार को इस बार बेहद मजबूत एंटी इनकंबेंसी का सामना भी करना पड़ रहा है। कई सर्वे और बीजेपी के खुद के आकलन के मुताबिक कोरोना संकट के दौरान पैदल चलकर बिहार पहुंचने वाले लाखों लोगों में सरकार विरोधी भावना है। साथ ही बिहार में लौटने पर उन्हें रोजगार नहीं मिलने से भी उनमें नीतीश कुमार के खिलाफ गुस्से का माहौल है। इसके अलावा प्रशासनिक मशीनरी में भ्रष्टाचार से भी आम जन मानस में सरकार के खिलाफ भारी असंतोष है। बदलती परिस्थितियों से बीजेपी को इस बात का अंदाजा हो गया है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की लोकप्रियता अपने निम्नतम बिंदू पर है, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता के बीच अपनी अपील कमोबेश बरकरार रखी है।
ऐसी कठिन चुनौतियों का सामना कर रहे नीतीश कुमार को अभी भी बीजेपी अपने साथ बराबर का हिस्सेदार मानती है तो इसके पीछे की वजह भी 2015 के विधानसभा चुनाव के नतीजे ही हैं। बीजेपी को ये अंदाजा है कि अगर वह अकेले चुनावी मैदान में उतरेगी तो उस पर केवल उच्च जातियों की पार्टी होने का लेबल लगते देर नहीं लगेगी। यही वजह है कि बीजेपी अपने साथ जेडीयू को हर हाल में जोड़े रखना चाहती है क्योंकि नीतीश कुमार पिछड़ी जातियों के वोटरों को अपने पाले में रखने की ताकत रखते हैं। एक तो बीजेपी इस बार 121 सीटों पर चुनाव लड़ रही है वहीं चिराग पासवान जेडीयू के खिलाफ अपनी पार्टी के कैंडिडेट उतार रहे हैं। इससे विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी बिहार में पहली बार सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर सकती है। अगर बीजेपी अपनी इस रणनीति में कामयाब हो गई है तो वह मुख्यमंत्री पद पर मजबूत दावा ठोक सकती है।
सियासी गलियारों में इसलिए ये कयास लगाया जा रहा है कि चिराग पासवान, बीजेपी के इशारे पर ही बगावती तेवर दिखा रहे हैं। पहले भी चुनाव में हार झेलने के बावजूद बीजेपी का स्ट्राइक रेट बेहतर रहा है और चिराग पासवान की वजह से जेडीयू को अगर कुछ ही सीटों का नुकसान हुआ तो बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है। राजनीति में पहले से कुछ भी फिक्स नहीं होता है, कुछ महीने पहले ऐसा लगता था कि बिहार के चुनावी मैदान में एनडीए और महागठबंधन ही दो प्लेयर हैं। जैसे जैसे चुनाव का वक्त करीब आता गया वैसे वैसे बिहार में कई गुट सामने आ गए। कुछ महीने पहले जो विधानसभा चुनाव वन साइडेड लग रहा था अब उसके कई सिरे खुल गए हैं। चुनावी नतीजे ही तय करेंगे कि कौन सा गुट अपनी सियासी मकसद को हासिल कर बाकियों को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर देगा।