तीन साल तक योगी के लिए कोई चुनौती पेश नहीं कर पाया विपक्ष

ऐसा नहीं है कि विपक्ष को योगी के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए पर्याप्त मौके नहीं मिले हों, लेकिन वह उसे भुनाने में नाकामयाब रहा। अब जबकि यूपी धीरे-धीरे चुनावी साल की तरफ बढ़ रहा है तो देखना होगा कि क्या विपक्ष अपनी गियर बदलता है ?





उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के तीन साल हो गए हैं। इन तीन वर्षों में पूरे देश में योगी हिन्दुत्व का नया चेहरा बनकर उभरे हैं। हाईकमान द्वारा कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में योगी को स्टार प्रचारक के तौर पर उतारा गया जिसका भारतीय जनता पार्टी को फायदा भी मिला। लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या उत्तर प्रदेश की जनता जहां के योगी मुख्यमंत्री हैं, वह उनके कामकाज से संतुष्ट है। इसको लेकर लोगों के बीच अलग-अलग राय है। कुछ लोग योगी सरकार के कामकाज से पूरी तरह से संतुष्ट हैं तो कई का मानना है कि योगी दोहरी राजनीति करते हैं। वह एक वर्ग विशेष को खुश करने के लिए दूसरे वर्ग के लोगों का उत्पीड़न करते हैं। इसका उदाहरण देते हुए बताया जाता है कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करने वालों के विरूद्ध जिस तरह योगी सरकार ने दंगाइयों जैसा व्यवहार किया वह लोकतांत्रिक तरीका नहीं था। योगी सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में छात्रों पर लाठियां चलवाईं। कभी जिन्ना की तस्वीर के नाम पर तो कभी आतंकवाद के नाम पर छात्रों का उत्पीड़न किया गया। वहीं गौकशी के नाम पर मॉब लिंचिंग करने वालों को इस सरकार में खुली छूट मिली है। सैंकड़ों मुस्लिम युवक आतंकवाद और दंगों आदि के नाम पर जेल भेज दिए गए हैं।

 

एक वर्ग विशेष के लोगों का आरोप है कि योगी आदित्यनाथ को तो मुस्लिम नाम से ही चिढ़ है। इसीलिए योगी आदित्यनाथ ने शहरों, मोहल्लों, स्टेशनों, एयरपोर्ट और मार्गों के नाम बदल दिए। मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन कर दिया गया। इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करने पर राजनीति अपने चरम पर पहुंच गई थी। कई विपक्षी पार्टियों ने योगी आदित्यनाथ के इस फैसले का पुरजोर विरोध किया, लेकिन विरोध करने वालों ने अतीत में नहीं झांका। अगर वह पीछे मुड़कर देखते तो पता चलता कि ऐसा पहली बार नहीं है, जब उत्तर प्रदेश की सरकारों ने अपने पसंदीदा महापुरुषों के नाम पर किसी स्थान या शहरों के नाम बदले हों। भाजपा से पहले भी समाजवादी पार्टी और बसपा की सरकारें एक-दूसरे के रखे हुए नामों को बदलती रही हैं। मायावती ने अमेठी का नाम छत्रपति शाहूजी नगर कर दिया था। इस फैसले को मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री बनते ही रद्द कर दिया। सत्ता में फिर मायावती आईं तो उन्होंने एक फिर अमेठी का छत्रपति शाहू जी महाराज कर दिया। 2012 में जब अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने उन्होंने फिर छत्रपति शाहूजी नगर का नाम बदलकर अमेठी रख दिया। इसके अलावा उन्होंने कई और जिलों के नाम बदल दिए। जैसे बुद्ध नगर का नाम शामली, भीम नगर का नाम बहजोई, पंचशील नगर का नाम हापुड़, ज्योतिबा फुले नगर का नाम अमरोहा, महामाया नगर का नाम हाथरस, कांशीराम नगर का नाम कासगंज, रमाबाई नगर का नाम कानपुर देहात और छत्रपति शाहूजी महाराज नगर का नाम अमेठी रख दिया।

 


मोहल्लों के उर्दू नाम बदलना योगी आदित्यनाथ की पुरानी आदत है। गोरखपुर के सांसद रहते हुए योगी गोरखपुर में पांच मोहल्लों का हिंदी नामकरण कर चुके हैं। उन्होंने ऊर्दू बाजार को हिंदी बाजार, हुमायुंपुर को हनुमान नगर, मीना बाजार को माया बाजार और अलीनगर को आर्यनगर कर दिया। हालांकि, नगर निगम ने अभी इन नए नामों पर मुहर नहीं लगाई है, लेकिन फिर भी इन स्थानों को नए नामों से पुकारा जाने लगा है। कई दुकानदारों ने अपने बोर्ड में ऊर्दू बाजार की जगह हिंदी बाजार और मीना बाजार को माया बाजार लिखना शुरू किया है। योगी ने बरेली, कानपुर, गोरखपुर और आगरा एयरपोर्ट के नाम बदल दिए। नए फैसले के तहत अब बरेली एयरपोर्ट को नाथ एयरपोर्ट, गोरखपुर सिविल एयरपोर्ट को योगी गोरखनाथ एयरपोर्ट, आगरा एयरपोर्ट को दीनदयाल उपाध्याय एयरपोर्ट और कानपुर के चकेरी एयरपोर्ट को पत्रकार व स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर जाना जाता है।

 

उधर, सीएम योगी आदित्यनाथ का कुछ और कहना है। वह कहते हैं भले ही प्रदेश में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से कम है, लेकिन उनकी सरकार ने मुसलमानों को सभी सरकारी योजनाओं का लाभ दिया है। उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मुस्लिम समुदाय के हर तीसरे व्यक्ति ने सरकारी योजनाओं का लाभ उठाया है। मदरसों को आधुनिक शिक्षा के योग्य बनाया जा रहा है।

 

बात योगी से भाजपा और उसके वोट बैंक को होने वाले फायदे की कि जाए तो इस हिसाब से योगी को सौ में सौ नंबर दिए जा सकते हैं। योगी आदित्यनाथ ने पिछले तीन वर्षों में अपनी छवि के अनुरूप कई आयाम तय किए। हिंदुत्व का चेहरा तो वह थे ही, सीएम बनने के बाद वह सख्त प्रशासक, विकासोन्मुख राजनेता और भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की छवि के लिए भी पहचाने जाने लगे। योगी ने फैसले लेने में ढृढ़ता दिखाई है। नोएडा न जाने का मिथक तोड़कर सियासत में अंधविश्वास पर चोट की तो नागरिकता संशोधन कानून विरोध में हुए हिंसक आंदोलनों से निपटने में जो कड़ा रूख अपनाया, वह कई राज्यों की कानून व्यवस्था के लिए मिसाल बन गया।

 

18 मार्च को अपनी सरकार के तीन साल पूरे करने वाले 48 वर्षीय योगी आदित्यनाथ भाजपा के पहले मुख्यमंत्री हैं, जो लगातार तीन साल तक इस पद पर रहे हैं। भाजपा से कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह प्रदेश की बागडोर संभाल चुके हैं, पर किसी के सिर लगातार तीन साल तक मुख्यमंत्री का ताज नहीं रहा। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि योगी अपने पांच साल पूरे करेंगे। बात योगी सरकार की कामयाबी की कि जाए तो उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में कई नए प्रयोग किए। सत्ता संभालते ही योगी ने अवैध बचूड़खाने बंद करा दिए। चुनावी वायदा पूरा करते हुए योगी सरकार ने लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा और छेड़छाड़ पर रोक लगाने के लिए एंटी रोमियो स्कवॉयड का गठन किया। मनचलों को पकड़-पकड़ कर सबक सिखाया गया। अखिलेश राज में गुंडागर्दी चरम पर थी, अपराधियों के हौसले बुलंद थे। योगी ने इस पर सख्त रवैया अख्तियार किया। पहले अपराधियों को सुधरने या प्रदेश छोड़कर चले जाने की नसीहत दी गई। नहीं माने तो उन्हें एनकाउंटर में मार गिराया गया, जिसके चलते संगठित अपराध पर काफी हद तक अंकुश लगा। कई बदमाश जमानत कैंसिल कराकर जेल चले गए, लेकिन इतना सब होने के बाद भी यूपी अपराध मुक्त नहीं हो पाया।

 

अपराध की कई बड़ी घटनाएं सरकार के लिए चुनौती बनी रहीं तो साम्प्रदायिक तनाव भी देखने को मिला। योगी राज में ही लखनऊ में हिन्दूवादी नेता कमलेश तिवारी को उनके घर पर ही मौत के घाट उतार दिया गया। इसी प्रकार 26 जनवरी 2018 को कासगंज में तिरंगा यात्रा निकाल रहे एबीवीपी से जुड़े चंदन गुप्ता की मुस्लिम बाहुल्य इलाके में हत्या कर दी गई। फर्रूखाबाद में 20 बच्चों को बंधक बनाना, सोनभ्रद में सामूहिक नरसंहार, नोएडा में मल्टीनेशनल कपंनी से जुड़े गौरव चंदेल और लखनऊ में टेलीकॉम कंपनी के एरिया मैनेजेर विवेक तिवारी की हत्या के मामले प्रमुख हैं। हिंदू महासभा के अध्यक्ष रणजीत बच्चन की हत्या भी चर्चा में रही।

 

सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलनों के प्रति कड़े रूख से योगी देश भर में चर्चा में आए। खासतौर से दंगाइयों से संपत्ति के नुकसान की वसूली करने का आदेश और उनकी फोटो सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित करने के फैसले सुर्खियों में रहे। इससे पहले अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उन्होंने प्रदेश में जिस तरह की चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था की, उससे कहीं अप्रिय घटना नहीं हुई। देश भर में इसकी सराहना हुई है। कथित उपद्रवियों कें फोटो चौराहों पर चस्पा करने के आदेश पर हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कानून नहीं होने का हवाला दिया तो योगी सरकार ने अध्यादेश लाकर इसे कानूनी जामा पहना दिया।

 

योगी राज में विकास का पहिया कितनी तेजी से घूमा यह भी जानना जरूरी है, क्योंकि किसी सरकार की समीक्षा विकास कार्यों से ही होती है। योगी ने विकास को अपना एजेंडा बनाया। जेवर इंटरनेशनल ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट का वर्षों से अटका प्रोजेक्ट उनकी प्रतिबद्धता के कारण ही धरातल पर उतरने जा रहा है। इन्वेस्टर्स समिट, ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी, चार-चार एक्सप्रेस-वे का निर्माण, पूरब को पश्चिम से जोड़ने वाले गंगा एक्सप्रेस-वे की तैयारी समेत कई परियोजनाओं पर काम चल रहा है। भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की उनकी नीति है। वह आधा दर्जन पीसीएस अधिकारियों को बर्खास्त करने के साथ ही दर्जनों कार्मिकों पर कार्रवाई कर चुके हैं।

 

बात अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव में योगी के स्टार वाली छवि की कि जाए तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में अली बनाम बजरंग बली का उनका बयान खूब चर्चा में रहा। पश्चिम यूपी की तुलना कश्मीर से करने का मामला हो, अपराधियों को ठोक देने का या सीएए विरोधी धरनों में महिलाओं की उपस्थिति पर विवादित बयान, उन्होंने अपनी छवि से कभी समझौता नही किया। बेबाकी से राय रखी। अयोध्या, काशी, मथुरा समेत सांस्कृतिक, धार्मिक स्थलों के पुनरूद्धार के लिए बड़ी योजनाएं बनाईं और उन्हें लागू कराया। प्रयागराज कुंभ जिस भव्यता के साथ समापन हुआ, उसने भी यूपी के बारे में धारणा बदलने का योगदान दिया। अब योगी सरकार के सिर्फ दो वर्ष बचे हैं। इसमें ही उन्हें विकास की जो परियोजनाएं शुरू की हैं, उसे धरातल पर लाना होगा।

 

चर्चा यूपी में योगी के चुनावी महारथी की कि जाए तो 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की शानदार सफलता का श्रेय मोदी के अलावा योगी को ही जाता है। मोदी को हराने के लिए सपा-बसपा अपनी वर्षों पुरानी दुश्मनी भूलकर एकजुट होकर चुनाव लड़ी थीं, लेकिन माया-अखिलेश का गठजोड़ भी भाजपा के विजय रथ को रोक नहीं पाया। एकजुटता का प्रयोग असफल रहने के बाद अब माया-अखिलेश अलग-अलग हो गए हैं। कांग्रेस की भी योगी के सामने दाल नहीं गल पा रही है। कांग्रेस ने बीते वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में यूपी की जिम्मेदारी अपने तुरूप के इक्के प्रियंका वाड्रा के कंधों पर डाली थी, प्रियंका ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, परंतु न तो कांग्रेस का वोट बैंक बढ़ा, न ही सीटें। बल्कि राहुल गांधी को अमेठी में हार का मुंह देखना पड़ गया। पिछले वर्ष विधान सभा के उप-चुनाव में भी बीजेपी ने शानदार प्रदर्शन किया था।

 

पिछले तीन वर्षों में योगी के सामने विपक्ष निष्क्रिय नजर आया। विपक्ष ने योगी सरकार की कई मोर्चों पर आलोचना तो की लेकिन वो योगी सरकार के सामने उदास और अदृश्य ही नजर आया। ट्विटर और मीडिया में विपक्षी दलों के नेता एक्टिव दिखाई दिए, लेकिन ऐसे कम ही मौके आए जब मुख्य विरोधी दलों का नेतृत्व सड़कों पर नजर आया हो। हाल ही में सबसे बड़ी घटना नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर हुई, जब राजधानी लखनऊ समेत कई जिलों में विरोध प्रदर्शन किए गए, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में विपक्षी दल नदारद दिखे। सपा-बसपा दोनों ही पार्टी के नेता ट्विटर और मीडिया के जरिए नागरिकता कानून और उस पर हुई हिंसा की आलोचना करते रहे, लेकिन ये विरोध सड़क पर दिखाई नहीं दिया।

 

विपक्ष के नाम पर सपा, बसपा और कांग्रेस योगी सरकार के खिलाफ कोई बड़ा दांव नहीं चल पाईं। सपा की बात की जाए तो वो परिवार के झगड़े में उलझ कर रह गई हैं। बसपा में सुश्री मायावती के अलावा किसी को बोलने तक की इजाजत नहीं है, ऐसे में कोई और नेता खुलकर किसी मसले पर अपने विचार तक नहीं रख पाता है और न ही कोई स्टैंड ले पाता है। बता दें कि सहारनपुर में दलितों के खिलाफ चर्चित घटना के दौरान भी बसपा की तरफ से सड़कों पर आक्रोश नजर नहीं आया था, जबकि उस घटना के बाद भीम आर्मी के चंद्रशेखर राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। आजाद ने हाल में आजाद समाज पार्टी भी बना ली है जो योगी के खिलाफ बड़ा चेहरा बनना चाहते हैं।

 

ऐसा नहीं है कि विपक्ष को योगी के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए पर्याप्त मौके नहीं मिले हों, लेकिन वह उसे भुनाने में नाकामयाब रही। योगी राज में बुलंदशहर हिंसा, कासगंज हिंसा, सहारनपुर हिंसा, सीएए हिंसा और उसके बाद पुलिस का सख्त एक्शन, उन्नाव रेप कांड, कुलदीप सेंगर केस और सोनभद्र नरसंहार जैसे बड़े घटनाक्रम हुए। इन पर सवाल भी उठे, विपक्ष ने आलोचना भी की, बावजूद इसके सड़क पर कोई बड़ी लड़ाई नजर नहीं आई। अब जबकि यूपी धीरे-धीरे चुनावी साल की तरफ बढ़ रहा है तो देखना होगा कि क्या विपक्ष अपनी गियर बदलता है ?

 

यहां यह भी ध्यान में रखना होगा कि विधान परिषद के शिक्षक व स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनावों की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। इसी साल के आखिर में पंचायत चुनाव प्रस्तावित हैं, जो अगले साल के मध्य तक जाएंगे। इसके साथ ही विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका होगा। योगी पर बतौर मुख्यमंत्री भाजपा को सत्ता में वापस लाने की चुनौती होगी। यानी अगले दो वर्ष योगी के राजनीतिक कौशल की परीक्षा के होंगे।