इससे शायद ही कोई इंकार करे कि उच्च शिक्षा और शोधपरक कार्य ही विश्वविद्यालयों का उद्देश्य है। लेकिन मौजूदा हालात इस उद्देश्य से भटक कर दूसरे हो गए हैं। देश में पहले ही उच्च शिक्षा की गुणवत्ता खराब है, उसमें मौजूदा घटनाक्रम करेला और नीम चढ़ा जैसे हो गए हैं।
सवाल यह भी है कि चंद लोगों की किसी मुद्दे पर पक्ष−विपक्ष की मानसिकता का खामियाजा वो हजारों विद्यार्थी क्यों उठाएं जो अपने अभिभावकों की गाढ़ी कमाई के बूते अपना भविष्य संवारने आते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या विश्वविद्यालय मुद्दे तय करने के लिए बनाए गए हैं। यदि देश−दुनिया के मुद्दे ही तय करने हैं तो इसके लिए सीधे विधानसभाएं और संसद बनी हुई हैं। यहां खूब बहस की जा सकती है। यहां कानून और नीतियां बनाई जा सकती हैं, न कि विश्वविद्यालयों में ऐसे मुद्दों का फैसला किया जा सकता है। यह काम राजनीतिक दलों का है कि देश को किस दिशा में ले जाना है। देश में राजनीतिक दलों को सत्ता की चाबी करोड़ों मतदाता सौंपते हैं, विश्वविद्यालय नहीं।
मतदाताओं के पास लंबे समय से सभी राजनीतिक दलों की जन्म कुंडलियां हैं। उन्हें अच्छी तरह अंदाजा है कि कौन-सा राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद कैसी नीतियां और कानून बनाएगा। इसका उदाहरण अयोध्या विवाद से समझा जा सकता है। भाजपा ने राजनीतिक सहारे के लिए इसे आधार बनाया पर मतदाताओं ने इस मुद्दे पर भाजपा को सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं भाजपा को मतदाताओं की कसौटी पर खरा उतरने मे दो दशक से ज्यादा का वक्त लग गया।