दोस्ती और दांव के बीच फंसी नीतीश की सियासी नांव



भले ही दोनों दल सार्वजनिक तौर पर ऐसे किसी भी कयास को खारिज कर रहे हैं पर यह भी सच है कि दोनों के बीच शीत युद्ध चरम पर है, खासकर के 30 मई 2019 के बाद।




बिहार में 2020 में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और सबकी दिलचस्पी इस बात को लेकर है कि बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार NDA में रहकर चुनाव लड़ेंगे या फिर पाला बदल लेंगे। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद इस बात को साफ कहा गया कि जदयू, भाजपा और लोजपा एक साथ मिलकर 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। लेकिन एक बात यह भी निकल कर सामने आया कि जदयू बिहार के बाहर NDA का हिस्सा नहीं रहेगी। नीतीश कुमार इस सवाल का जवाब देने से बच रहे हैं और ज्यादा पूछने पर वह सिर्फ यह कहकर निकल लेते हैं कि वह काम पर फोकस कर रहे हैं ना कि चुनाव पर। जब चुनाव आएगा तब देखा जाएगा। नीतीश का यह बयान और भाजपा-जदयू के रिश्तों में आई तल्खी 2020 में नए राजनीतिक समीकरण को बल दे रहे हैं। भले ही दोनों दल सार्वजनिक तौर पर ऐसे किसी भी कयास को खारिज कर रहे हैं पर यह भी सच है कि दोनों के बीच शीत युद्ध चरम पर है, खासकर के 30 मई 2019 के बाद।


लोकसभा चुनाव के परिणाम वाले दिन बिहार में NDA की बढ़त की खबर आते ही जदयू के पटना कार्यालय में जश्न शुरू हो गया पर उसे अचानक बंद कर दिया गया। कारण था भाजपा अकेले अपने दम पर 300 के पार पहुंच चुकी थी और शायद नीतीश कुमार के लिए यह किसी झटके से कम नहीं था और जब वह मीडिया से बात करने आए तो उनके चेहरे की शिकन इस बात को साफ तौर पर बंया कर रही थी। चुनाव परिणाम से पहले नीतीश को यह लगता था कि भाजपा बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाएगी और ऐसी परिस्थिति में उन्हें मोल-भांव करने का अच्छा मौका मिल सकता है। पर ऐसा हुआ नहीं। हालांकि बहुत सारी उम्मीदें और सपने सजाएं नीतीश दिल्ली पहुंचे और अपनी पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम का समर्थन प्रस्ताव पढ़ा। इसके बाद अमित शाह और नीतीश के बीच कई मुलाकतों का दौर चला और तब भी नीतीश को यह लग रहा था कि शायद उनकी पार्टी को कैबिनेट में ज्यादा तरहीज मिल जाएगी पर हुआ ठीक इसके उलट। शपथ ग्रहण वाले दिन भाजपा ने साफ कर दिया कि वह अपने सभी गठबंधन के सहयोगियों को एक-एक मंत्रीपद देगी और यह नीतीश के लिए सबसे बड़ा झटका था। पार्टी नेता आरसीपी सिंह के पास फोन भी जा चुका था और मोदी के साथ चाय पीने के लिए आमंत्रण भी मिल गया। उधर पटना में भी आरसीपी सिंह के आवास पर बधाईयों का दौर शुरू हो गया। सोशल मीडिया पर भी उन्हें बधाई दी जा रही थी। पर नीतीश के मन में कुछ और चल रहा था। अचानक खबर आती है कि जदयू मोदी कैबिनेट में शामिल नहीं होगी और सब कुछ सन्नाटे में तब्दील हो गया।    


नीतीश को कम से कम तीन मंत्रीपद की उम्मीद थी और दूसरा यह कि वह रामविलास पासवान से किसी भी सूरत में ज्यादा रहना चाहते थे। खैर दिल्ली से पटना वापस आए और आते ही साफ कर दिया कि वह सांकेतिक भागीदारी में दिलचस्पी नहीं रखते। नीतीश के मन में भी बदले की भावना चलने लगी और उन्होंने अपनी कैबिनेट का विस्तार करते हुए आठ नए मंत्रियों को शामिल किया पर उसमें भाजपा का कोई भी नेता नहीं था। इफ्तार पार्टी ने भी दोनों दलों के बीच की सियासी शीत युद्ध की कहानी को बयां कर दिया। भाजपा और जदयू दोनों ने ही अपनी इफ्तार पार्टी एक दिन ही रखी और दोनों दलों के नेताओं ने एक दूसरे के इफ्तार पार्टी से दूरी बना ली। नीतीश जीतनराम मांझी और पासवान की इफ्तार पार्टी में तो शामिल हुए पर भाजपा से दूरी बना ली। गिरिराज सिंह का ट्वीट भी जदयू को भाजपा पर हमलावर होने का मौका दे दिया। इस बीच भाजपा स्थिति को संभालने में लगी रही। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व भी कई बार नीतीश से बात करने की कोशिश की पर मामला बढ़ता ही चला गया। हालांकि नीतीश को यह भी लगने लगा है कि भाजपा बिहार में अपने बल-बूते चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। सियासी पंडित यह मानते हैं कि अगर बिहार में जदयू और राजद अलग-अलग रहे तो भाजपा को वहां हरा पाना बेहद ही मुश्किल काम है। शादय यही वह डर है जो नीतीश को खाये जा रहा है। भले ही महागठबंधन ने हार के बाद नीतीश के लिए अपने द्वार खोल दिए हो पर नीतीश महागठबंधन में शामिल होते है तो शायद उनकी पलटूराम की छवि को गंभीरता से लिया जाएगा। 


नीतीश नए गठबंधन की तलाश में हैं जो शायद गैर भाजपा और गैर राजद रहेगा। नीतीश पासवान, मांझी और कांग्रेस के साथ किसी नए गठबंधन की फिराक में हैं। हालांकि उनकी पार्टी भाजपा को यह कह के लगातार डराने की कोशिश कर रही है कि बिहार में NDA को वोट मोदी के नाम पर नहीं बल्कि नीतीश के काम पर मिला है। उदाहरण के लिए वह दलित, ओबीसी और मुस्लिम समुदाय से मिले वोटों को पेश कर रही है। उधर भाजपा भी नीतीश के आगामी दांव को भांपने की कोशिश कर रही है और अपने पांव धीरे-धीरे आगे बढ़ा रही है। भाजपा भी बिहार में अपने संगठन को मजबूत करने की कोशिश में जुट गई है। अब यह देखना होगा कि बिहार की राजनीति चुनाव पास आने तक किस करवट लेती है।