खण्डित त्योहार वाले परिवार के लोग चोरी-छिपे अपराधबोध के साथ त्योहार मनाते हैं


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नागपंचमी और गुड़िया के बाद रक्षाबन्धन के साथ ही सावन माह समाप्त हो चुका है… भादों माह में बहुला-चौथ, हलषष्ठी और अब जन्माष्टमी का पर्व है... फ़िर इसके बाद अब सनातन पर्वों-त्योहारों का मौसम आ रहा है जो नवरात्रि, दशहरा, दीवाली से होता हुआ होली तक चलेगा… किन्तु आपको अपने आस-पड़ोस में ऐसे हिन्दू परिवार भी मिलेंगे, जिनके यहाँ कोई न कोई त्योहार खण्डित मिलेगा… दरअसल एक प्रचलित कुरीति यह है कि यदि किसी पर्व, व्रत या त्योहार के दिन कुटुम्ब में किसी की किसी भी कारण से मृत्यु हो गई हो, तो उस कुटुम्ब में वह पर्व, व्रत या त्योहार शोकस्वरूप हमेशा के लिए खण्डित मान लिया जाता है… और यह खण्डित त्योहार तभी पुनर्जीवित होता है जब उसी पर्व, व्रत या त्योहार के दिन उस कुटुम्ब में कभी कोई पुत्र जन्म हो अथवा ख़ानदान की किसी गाय के बछड़ा उत्पन्न हो… तमाम बड़े ख़ानदानों में तो होली-दीवाली जैसे त्योहार भी दशकों तक खण्डित ही रहते हैं…


परिणामस्वरूप जब पूरा समाज त्योहार मना रहा होता है तो खण्डित त्योहार वाले परिवार के लोग उदासीन बैठे होते हैं अथवा चोरी-छिपे अपराधबोध के साथ त्योहार मनाते हैं… मेरे एक रिश्तेदार के यहाँ करवाचौथ कई दशक से खण्डित है… उनकी बहुओं को यह भी नहीं मालूम कि ख़ानदान में किसकी मृत्यु करवाचौथ के दिन होने के कारण कितने वर्षों से यह खण्डित है… मेरा प्रश्न है कि जब करवाचौथ व्रत रखने वाली उनकी बहू अपने पति की सलामती के लिए यह व्रत रखती है तो परिवार में कई दशक पूर्व किसी बुज़ुर्ग की मृत्यु होने से उस बहू का व्रत किस तर्क से खण्डित हो गया…? मेरे मोहल्ले में भी कई परिवार होली खण्डित बताकर चंदा नहीं देते, हालांकि उनके बच्चे चोरी छिपे पूरा त्योहार मनाते हैं… यही स्थिति दीवाली और अन्य त्योहारों की है…


मेरे विचार से समाज व्यक्ति से सदैव बड़ा होता है तथा धर्म व्यक्ति और उसके समाज से भी बड़ा होता है… संस्कार, अनुष्ठान, व्रत, पर्व, त्योहार सब उसी सनातन धर्म-संस्कृति के ही अभिन्न अंग हैं… किसी एक व्यक्ति की मृत्यु पर समूचे कुटुम्ब का कोई व्रत-पर्व-त्योहार अनिश्चितकाल के लिए कैसे खण्डित हो सकता है…? ख़ासतौर पर सनातन धर्म में जिसमें आत्मा को अविनाशी और उस परब्रह्म का ही अंश माना जाता है… ईश्वर अंश जीव अविनाशी...


सनातन धर्म के आधार ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 26वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं--
“अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।2.26।।”
अर्थात:-- "और यदि इस आत्मा को तुम सदा जन्म लेने वाली और सदा मरणशील समझते हो, तो भी हे दीर्घबाहु अर्जुन! इसके लिए तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।"


सनातन धर्म में किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद अंत्येष्टि संस्कार उसका अन्तिम संस्कार होता है… अन्त्य मतलब अन्तिम और इष्टि मतलब यज्ञ, अर्थात अंत्येष्टि संस्कार भी एक यज्ञ ही है जिसमें आत्मा द्वारा त्याग दी गई नश्वर देह की आहुति दी जाती है… इसके उपरांत दस दिनों के कुटुम्ब शोक के पश्चात दशगात्र (दसवां) संस्कार होता है, जिसमें कर्मकाण्ड उपरांत समूचे ख़ानदान के पुरुष सिर मुंडवा कर कौटुम्बिक एकजुटता के साथ कुटुम्ब-भोज के बाद शोक समाप्त करते हैं… फिर तेरहवें दिन त्रयोदश संस्कार होता है जिसमें शोक समाप्ति उपरांत सामाजिक खानपान पुनः प्रारम्भ करके स्थिति सामान्य की जाती है… पुनः एक वर्ष बाद बरसी तिथि आयोजित करने के उपरांत फ़िर मृतक का शोक कभी नहीं मनाया जाता… अपने पूर्वज मृतकों को श्रद्धांजलि, तर्पण, श्राद्ध द्वारा हर वर्ष पितृपक्ष में पन्द्रह दिनों तक श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है…


पितृपक्ष के अलावा सनातन धर्म में कोई शोक का पर्व-व्रत-त्योहार नहीं होता… श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसे अवतारों समेत तमाम दिव्यपुरुषों का जन्मदिन तो मनाया जाता है, लेकिन कभी महाप्रयाण अथवा पुण्यतिथि नहीं मनाई जाती… दरअसल सनातन धर्म एक समृद्ध जीवंत परम्परा है, जिसमें अंधकार, मृत्यु और शोक नहीं अपितु प्रकाश, जीवन और उल्लास प्राण तत्व हैं… कल्पना कीजिये ये व्रत-पर्व-त्योहार न होते तो जीवन कितना नीरस होता… प्रसन्नता और आनन्द ही जीवन के आवश्यक तत्व है… ये व्रत-पर्व-त्योहार न केवल हमें प्रसन्नता और आनन्द देते हैं बल्कि परिवार और समाज से जोड़ते हैं… अधिकांश सनातनी व्रत-पर्व-त्योहार पर्यावरण, ऋतुओं, फसलों, कृषि, स्वास्थ्य, पारस्परिक सौहार्द, पारिवारिक समर्पण, नैतिकता तथा उत्तरदायित्व से जुड़े सामाजिक उत्सव हैं, जिनके जरिये धर्म-कर्म के साथ ही अर्थव्यवस्था भी जुड़ी है…


इसलिए हरेक व्रत-पर्व-त्योहार बिंदास मनाइए… और मेरी तरह आप भी अपने परिजनों से पूर्वघोषित कर जाइये कि किसी व्रत-पर्व-त्योहार के दिन मेरी आकस्मिक मृत्यु से भी वह त्योहार भविष्य में कदापि खण्डित नहीं होगा… मृत्यु अटल है, आकस्मिक है, अनियंत्रित है तो उसमें मेरे परिजनों अथवा भावी पीढ़ी का क्या दोष…? मेरी आकस्मिक मृत्यु की सज़ा आजीवन मेरे परिजन और उनकी भावी पीढ़ियाँ क्यों भोगें… मैं या कोई भी व्यक्ति सनातन धर्म और समाज से कदापि बड़ा नहीं हो सकता, बल्कि हम उसका एक छोटा सा अंश मात्र हैं...