मुसलमानों को यह खुली आंख से देखना होगा और उदार मन से सोचना और समझना ही होगा कि कैसे उनका रिश्ता मंगोल और तुर्क से लेकर आईएस, तालिबान, पाकिस्तान, याकूब मेनन, अफजल गुरु के साथ सयुंक्त किया गया है।
भारत में मुसलमानों को डराने और उन्हें अल्पसंख्यक के रूप में अलग से स्थापित किया जाना ही सम्प्रदायवाद की बुनियाद है। यही काम इस मुल्क में वाम विचारकों ने सफलतापूर्वक किया है। मुसलमानों को यह खुली आंख से देखना होगा और उदार मन से सोचना और समझना ही होगा कि कैसे उनका रिश्ता मंगोल और तुर्क से लेकर आईएस, तालिबान, पाकिस्तान, याकूब मेनन, अफजल गुरु के साथ सयुंक्त किया गया है। भारत में इस्लाम के प्रतीक बुल्ले शाह, अमीर खुसरो, रसखान से लेकर अब्दुल हमीद, एपीजे कलाम क्यों नहीं बन सके हैं ? हमारे मुस्लिम भाइयों को गहराई से सोचना चाहिये कि जिस समाज में नक्काशी, बुनाई, कढ़ाई, शिल्प, कारीगरी, गायन, अभिनय से लेकर विभिन्न कलाओं की निपुणता है उसे वक्त के साथ की तालीम से महरूम क्यों और किसने किया ? जो लोग अल्पसंख्यक का अहसास कराते रहे वे कभी इस जमात की आधुनिक शिक्षा और हुनर के फिक्रमंद क्यों नहीं रहे ? अगर इन सवालों का जवाब हर मुसलमान अपने आप से भी पूछना शुरू कर दे तो भारत में अलगाव की बात ही खत्म हो चुकी होगी। जिस उदार मन से हर मुसलमान ने अयोध्या के फैसले को स्वीकार किया है वह बताता है कि भारत अंतस से एक है।
असल में उपासना पद्धति केवल भारत में ही नहीं बदली है कम्बोडिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मॉरीशस, त्रिनिदाद, म्यांमार जैसे अनेक मुल्कों में आज हिन्दू मान-बिन्दुओं की प्रभावी उपस्थिति इसलिये है क्योंकि वहां के इतिहासकारों ने, राजनीतिक दलों ने कभी अपनी सांस्कृतिक विरासत को तिरोहित नहीं होने दिया है। विदेश मंत्री के रूप में जब अटल जी कम्बोडिया में गए थे तो वहां रामायण का मंचन देख उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुए वहां के राष्ट्रपति ने गर्व से बताया कि राम हमारे पूर्वज हैं। हमने सिर्फ उपासना पद्धति बदली है पुरखे नहीं। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में सबसे बड़ा होटल कनिष्क है और जिस लुटेरे गजनी को हम जानते हैं उसका वहां के इतिहास में कोई नामोनिशान नहीं है। गजनी नामक जगह पर धूल के गुबार उड़ते रहते हैं कोई मजार तक उस लुटेरे ग़जनी की नहीं है जो सोमनाथ के मंदिर तक लूट मचाता आया था।