कस्टडी और गिरफ्तारी एक बात नहीं है. गिरफ्तारी के बाद कस्टडी मिलती है. हालांकि हर केस में ऐसा जरूरी नहीं
अपराध की ख़बरें पढ़ते वक्त अक्सर आपने गौर किया होगा कि न्यायिक हिरासत का समय 15 दिन रहता है. क्या यह समयसीमा पूर्व निर्धारित है या अदालतें इस मामले में किसी परंपरा का पालन करती हैं? हम इसी सवाल का जवाब जानने की कोशिश करेंगे.
क्या है कस्टडी?
कस्टडी से जुड़े कानून CrPC की धारा 167 में दर्ज हैं. कस्टडी और गिरफ्तारी एक बात नहीं है. गिरफ्तारी के बाद कस्टडी मिलती है. हालांकि हर केस में ऐसा जरूरी नहीं. मसलन, जब कोई कोर्ट में सरेंडर करता है तो वह कस्टडी में होता है, पर गिरफ्तार करके नहीं लाया गया होता.
निरंजन सिंह बनाम प्रभाकर राजाराम खरोटे के मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने व्यवस्था दी थी कि सिर्फ पुलिस द्वारा आरोपी को अरेस्ट कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर रिमांड लेने को कस्टडी नहीं कहा जा सकता. जुडिशियल कस्टडी तब होती है जब वह (आरोपी) कोर्ट के सामने सरेंडर करे और उसके निर्देशों का पालन करे.
कैसे मिलती है जुडिशियल कस्टडी?
जब पुलिस संज्ञेय अपराध के शक में किसी को गिरफ्तार करती है, तो वह पुलिस कस्टडी में होता है. किसी को बिना कोर्ट की इजाजत के पुलिस कस्टडी में 24 घंटे से ज्यादा समय तक नहीं रखा जा सकता. हिरासत या गिरफ्तार किए गए हर व्यक्ति को 24 घंटों के भीतर नजदीकी मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है.
जब पुलिस किसी आरोपी को गिरफ्तार कर पेश करती है तो अदालत के सामने दो विकल्प होते हैं- या तो उसे पुलिस कस्टडी में भेजें या जुडिशियल कस्टडी में. पुलिस कस्टडी में रिमांड दी जाती है तो आरोपी को पुलिस थाने के लॉक-अप में रखा जाता है. ऐसे स्थिति में पुलिस के पास आरोपी से किसी भी वक्त पूछताछ की छूट होती है.
जुडिशियल कस्टडी में आरोपी को मजिस्ट्रेट की कस्टडी मिलती है और उसे जेल भेज दिया जाता है. पुलिस संबंधित मजिस्ट्रेट से इजाजत लिए बिना ऐसे आरोपी से पूछताछ नहीं कर सकती.
पहली कस्टडी की समयसीमा 15 दिन है. मजिस्ट्रेट के पास अधिकार होते हैं कि वह कस्टडी के प्रकार में बदलाव कर सकते हैं, मगर समय में नहीं. अगर 15 दिन से पहले कस्टडी बदलती है तो दूसरी कस्टडी में बिताए गए दिन घटा दिए जाते हैं.
क्या है टाइम लिमिट?
गिरफ्तार कर पेश किए गए आरोपी को सिर्फ पहले 15 दिन के लिए पुलिस कस्टडी में भेजा जा सकता है. इसके बाद सिर्फ जुडिशियल कस्टडी ही मिलती है, वह भी अधिकतम 90 दिन के लिए. गंभीर मामलों में इसी दौरान पुलिस को जांच पूरी करनी होती है. बाकी मामलों में 60 दिन की समयसीमा रहती है. फांसी, उम्रकैद या 10 साल 60 दिन से ज्यादा की सजा वाले अपराधों के लिए जुडिशियल कस्टडी में 90 दिन की बढ़ोत्तरी की जा सकती है.
आरोपी को हालात के आधार पर पुलिस कस्टडी या पुलिस कस्टडी से जुडिशियल कस्टडी में रिमांड पर दिया जा सकता है, मगर CrPC की धारा 162 (2) के तहत समयसीमा 15 दिन ही रहेगी. जुडिशियल कस्टडी की अधिकतम सीमा उस अपराध के लिए तय सजा के आधे समयकाल तक ही हो सकती है.
जुडिशियल मजिस्ट्रेट के पास किसी भी तरह की कस्टडी को 15 दिन तक बढ़ाने के अधिकार होते हैं. एक एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट 7 दिनों के लिए कस्टडी बढ़ा सकता है.
कस्टडी का मतलब किसी दूसरे व्यक्ति को कंट्रोल करना है. इसके जरिए संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिली निजी स्वतंत्रता में दखल दी जाती है. चूंकि इसके दुरुपयोग की भी आशंका है, ऐसे में कस्टडी से जुड़े कई नियम-कानून तैयार किए गए हैं.